गजलें और शायरी >> खुली आँखों में सपना खुली आँखों में सपनासुरेश कुमार
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परवीन शाकिर की गज़लें और नज्म़ें...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्राक्कथन
नारी-मन की व्यथा को अपनी मर्मस्पर्शी शैली के माध्यम से अभिव्यक्त करने
वाली पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर उर्दू-काव्य की अमूल्य निधि हैं।
पाकिस्तानी शायरी का ज़िक्र चले और परवीन शाकिर के शेर याद न
आएँ, ऐसा सम्भव नहीं।
पा-ब-गिल सब हैं, रिहाई की करे तदबीर कौन
दस्तबस्ता शहर में खोले मिरी जंजीर कौन
मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा
जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये
उँगलियों को तराश दूँ फिर भी
आदतन उसका नाम लिक्खेंगी
दस्तबस्ता शहर में खोले मिरी जंजीर कौन
मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा
जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये
उँगलियों को तराश दूँ फिर भी
आदतन उसका नाम लिक्खेंगी
बीसवीं सदी के आठवें दशक में प्रकाशित परवीन शाकिर के मजमुआ-ए-कलाम
‘खुशबू’ की खुशबू पाकिस्तान की सरहदों को पार करती
हुई, न सिर्फ़ भारत पहुँची, बल्कि दुनिया भर के उर्दू-हिन्दी
काव्य-प्रेमियों के मन-मस्तिष्क को सुगंधित कर गयी। सरस्वती की इस बेटी को
भारतीय काव्य-प्रेमियों ने सर-आँखों पर बिठाया। उसकी शायरी में भारतीय
परिवेश और संस्कृति की खुशबू को महसूस किया।
ये हवा कैसे उड़ा ले गयी आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी
परवीन शाकिर की शायरी, खुशबू के सफ़र की शायरी है। प्रेम की उत्कट चाह में
भटकती हुई, वह तमाम नाकामियों से गुज़रती है, फिर भी जीवन के प्रति उसकी
आस्था समाप्त नहीं होती। जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए, वह
अपने धैर्य का परीक्षण भी करती है।
कमाल-ए-ज़ब्त को खुद भी तो आजमाऊँगी
मैं अपने हाथ से उसकी दुलहन सजाऊँगी
मैं अपने हाथ से उसकी दुलहन सजाऊँगी
प्रेम और सौंदर्य के विभिन्न पक्षों से सुगन्धित परवीन शाकिर की शायरी
हमारे दौर की इमारत में बने हुए बेबसी और विसंगतियों के दरीचों में भी
अक्सर प्रवेश कर जाती है-
ये दुख नहीं कि अँधेरों से सुलह की हमने
मलाल ये है कि अब सुबह की तलब भी नहीं
मलाल ये है कि अब सुबह की तलब भी नहीं
पाकिस्तान की इस भावप्रवण कवयित्री और ख़्वाब-ओ-ख़याल के चाँद-नगर की
शहज़ादी को बीसवीं सदी की आखिरी दहाई रास नहीं आयी। एक सड़क दुर्घटना में
उसका निधन हो गया। युवावस्था में ही वह अपनी महायात्रा पर निकल गयी।
कोई सैफो हो, कि मीरा हो, कि परवीन उसे
रास आता ही नहीं चाँद-नगर में रहना
रास आता ही नहीं चाँद-नगर में रहना
‘खुली आँखों में सपना’ में आपको उनकी चर्चित और
प्रशंसित रचनाएँ तो मिलेंगी ही, साथ ही बहुत-सी ऐसी ग़ज़लों और नज्मों से
भी आपका परिचय होगा, जो अभी तक देवनागरी में नहीं आ सकी हैं। उर्दू में
प्रकाशित परवीन शाकिर के काव्य-समग्र ‘माह-ए-तमाम’ से
इस संकलन की रचनाओँ का चयन किया गया है। अस्तु, यह संकलन कई दृष्टियों से
आपको अप्रितम लगेगा। ऐसा मुझे विश्वास है।
सुरेश कुमार
ग़ज़लें
(1)
किसी की खोज में फिर खो गया कौन
गली में रोते-रोते सो गया कौन
बड़ी मुद्दत से तनहा थे मिरे दुख
खुदाया, मेरे आँसू रो गया कौन
जला आयी थी मैं तो आस्तीं तक
लहू से मेरा दामन धो गया कौन
जिधर देखूँ खड़ी है फ़स्ल-ए-गिरिया1
मिरे शहरों में आँसू बो गया कौन
अभी तक भाइयों में दुश्मनी थी
ये माँ के खूँ का प्यासा हो गया कौन
गली में रोते-रोते सो गया कौन
बड़ी मुद्दत से तनहा थे मिरे दुख
खुदाया, मेरे आँसू रो गया कौन
जला आयी थी मैं तो आस्तीं तक
लहू से मेरा दामन धो गया कौन
जिधर देखूँ खड़ी है फ़स्ल-ए-गिरिया1
मिरे शहरों में आँसू बो गया कौन
अभी तक भाइयों में दुश्मनी थी
ये माँ के खूँ का प्यासा हो गया कौन
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1.रुदन की पैदावार।
1.रुदन की पैदावार।
(2)
खुली आँखों में सपना झाँकता है
वो सोया है कि कुछ-कुछ जागता है
तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
मिरा तन मोर बन के नाचता है
मुझे हर कैफ़ियत1 में क्यों न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है
मैं उसकी दस्तरस2 में हूँ, मगर वो
मुझे मेरी रिज़ा3 से माँगता है
किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है
वो सोया है कि कुछ-कुछ जागता है
तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
मिरा तन मोर बन के नाचता है
मुझे हर कैफ़ियत1 में क्यों न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है
मैं उसकी दस्तरस2 में हूँ, मगर वो
मुझे मेरी रिज़ा3 से माँगता है
किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है
(3)
उसी तरह से हर इक जख़्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुज़र गए हैं बहुत दिन रफ़ाक़त-ए-शब1 में
इक उम्र हो गई चेहरा वो चाँद-सा देखे
मिरे सुकूत2 से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आँखों का बोलना देखे
तिरे सिवा भी कई रंग ख़ुश-नज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त3 की रफ़ाक़त4 जो
जब आँखें खोले, पहाड़ों का सिलसिला देखे
तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मिरी तरफ़ भी तो इक पल तिरा खुदा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुज़र गए हैं बहुत दिन रफ़ाक़त-ए-शब1 में
इक उम्र हो गई चेहरा वो चाँद-सा देखे
मिरे सुकूत2 से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आँखों का बोलना देखे
तिरे सिवा भी कई रंग ख़ुश-नज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त3 की रफ़ाक़त4 जो
जब आँखें खोले, पहाड़ों का सिलसिला देखे
तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मिरी तरफ़ भी तो इक पल तिरा खुदा देखे
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1.रात्रि का साहचर्य। 2.मौन। 3.जंगल। 4.मैत्री।
1.रात्रि का साहचर्य। 2.मौन। 3.जंगल। 4.मैत्री।
(4)
ज़मीन से रह गया दूर आसमान कितना
सितारा अपने सफ़र में है खुश-गुमान कितना
परिन्दा पैकाँ-ब-दोश1 परवाज कर रहा है
रहा है उसको ख़याल-ए-सय्यादगान2 कितना
हवा का रुख़ देखकर समन्दर से पूछना है
उठाएँ अब कश्तियों पे हम बादबान3 कितना
बहार में ख़ुशबूओं का नाम-ओ-नसब4 था जिससे
वही शजर आज हो गया बेनिशान कितना
गिरे अगर आईना तो इक ख़ास जाविये5 से
वर्ना हर अक्स को रहे खुद पे मान कितना
बिना किसी आस के उसी तरह जी रहा है
बिछड़ने वालों में था कोई सख़्तजान कितना
वो लोग क्या चल सकेंगे जो उँगलियों पे सोचें
सफ़र में है धूप किस कदर, सायबान कितना
सितारा अपने सफ़र में है खुश-गुमान कितना
परिन्दा पैकाँ-ब-दोश1 परवाज कर रहा है
रहा है उसको ख़याल-ए-सय्यादगान2 कितना
हवा का रुख़ देखकर समन्दर से पूछना है
उठाएँ अब कश्तियों पे हम बादबान3 कितना
बहार में ख़ुशबूओं का नाम-ओ-नसब4 था जिससे
वही शजर आज हो गया बेनिशान कितना
गिरे अगर आईना तो इक ख़ास जाविये5 से
वर्ना हर अक्स को रहे खुद पे मान कितना
बिना किसी आस के उसी तरह जी रहा है
बिछड़ने वालों में था कोई सख़्तजान कितना
वो लोग क्या चल सकेंगे जो उँगलियों पे सोचें
सफ़र में है धूप किस कदर, सायबान कितना
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1.कन्धे पर बाण की नोक के लिए। 2.बहेलियों का ध्यान। 3.पोतपट। 4.नाम और गोत्र। 5.कोण।
1.कन्धे पर बाण की नोक के लिए। 2.बहेलियों का ध्यान। 3.पोतपट। 4.नाम और गोत्र। 5.कोण।
(5)
पानियों-पानियों जब चाँद का हाला उतरा
नींद की झील पे एक ख़्वाब पुराना उतरा
आजमाइश में कहाँ इश्क़ भी पूरा उतरा
हुस्न1 के आगे तो तक़दीर का लिक्खा उतरा
धूप ढलने लगी, दीवार से साया उतरा
सतह हमवार2 हुई, प्यार का दरिया उतरा
याद से नाम मिटा, जेहन से चेहरा उतरा
चन्द लम्हों में नज़र से तिरी क्या-क्या उतरा
आज की शब मैं परीशाँ हूँ तो यूँ लगता है
आज महताब का चेहरा भी है उतरा-उतरा
मेरी वहशत रम-ए-आहू3 से कहीं बढ़कर थी
जब मेरी ज़ात में तनहाई का सहरा उतरा
इक शब-ए-ग़म4 के अँधेरे पे नहीं है मौकूफ़5
तूने जो जख़्म लगाया है वो गहरा उतरा
नींद की झील पे एक ख़्वाब पुराना उतरा
आजमाइश में कहाँ इश्क़ भी पूरा उतरा
हुस्न1 के आगे तो तक़दीर का लिक्खा उतरा
धूप ढलने लगी, दीवार से साया उतरा
सतह हमवार2 हुई, प्यार का दरिया उतरा
याद से नाम मिटा, जेहन से चेहरा उतरा
चन्द लम्हों में नज़र से तिरी क्या-क्या उतरा
आज की शब मैं परीशाँ हूँ तो यूँ लगता है
आज महताब का चेहरा भी है उतरा-उतरा
मेरी वहशत रम-ए-आहू3 से कहीं बढ़कर थी
जब मेरी ज़ात में तनहाई का सहरा उतरा
इक शब-ए-ग़म4 के अँधेरे पे नहीं है मौकूफ़5
तूने जो जख़्म लगाया है वो गहरा उतरा
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1.सौंदर्य।ष 2.समतल। 3.हिरन का भागना। 4.पीड़ा की रात्रि। 5.निर्भर।
1.सौंदर्य।ष 2.समतल। 3.हिरन का भागना। 4.पीड़ा की रात्रि। 5.निर्भर।
(6)
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक1 हो गये
मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक2 हो गये
बादल को क्या ख़बर है कि बारिश की चाह में
कितने बलन्द-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गये
जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये
लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक3 हो गये
साहिल पे जितने आब-गजीदा4 थे, सब के सब
दरिया का रुख़ बदलते ही तैराक हो गये
सूरज-दिमाग लोग भी इबलाग़-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़5 के पेचाक हो गये
जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहज़े हवा-ए-शाम के नमनाक6 हो गये
मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक2 हो गये
बादल को क्या ख़बर है कि बारिश की चाह में
कितने बलन्द-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गये
जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये
लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक3 हो गये
साहिल पे जितने आब-गजीदा4 थे, सब के सब
दरिया का रुख़ बदलते ही तैराक हो गये
सूरज-दिमाग लोग भी इबलाग़-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़5 के पेचाक हो गये
जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहज़े हवा-ए-शाम के नमनाक6 हो गये
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1.विदीर्ण। 2.अत्याचारी। 3.धृष्ट,निर्लज्ज। 4.पानी से डरे। 5.वियोग की रात्रि के केश। 6.आर्द्र।
1.विदीर्ण। 2.अत्याचारी। 3.धृष्ट,निर्लज्ज। 4.पानी से डरे। 5.वियोग की रात्रि के केश। 6.आर्द्र।
(7)
सभी गुनाह धुल गये सज़ा ही और हो गयी
मिरे वजूद पर तिरी गवाही और हो गयी
रफ़ूगरान-ए-शहर1 भी कमाल लोग थे मगर
सितारासाज़ हाथ में क़बा ही और हो गई
बहुत से लोग शाम तक किवाड़ खोलकर रहे
फ़क़ीर-ए-शहर की मगर सदा ही और हो गई
अँधेरे में थे जब तलक ज़माना साजगार2 था
चिराग़ क्या जला दिया, हवा ही और हो गई।
बहुत सँभल के चलने वाली थी पर अब के बार तो
वो गुल खिले कि शोख़ी-ए-सबा3 ही और हो गई
न जाने दुश्मनों की कौन बात याद आ गई
लबों तक आते-आते बद्दुआ ही और हो गई
ये मेरे हाथ की लकीरें खिल रहीं थीं या कि खुद
शगुन की रात खुशबू-ए-हिना4 ही और हो गई
ज़रा-सी कर्गसों5 को आब-ओ-दाना की जो शह मिली
उकाब6 से ख़िताब की अदा ही और हो गई
मिरे वजूद पर तिरी गवाही और हो गयी
रफ़ूगरान-ए-शहर1 भी कमाल लोग थे मगर
सितारासाज़ हाथ में क़बा ही और हो गई
बहुत से लोग शाम तक किवाड़ खोलकर रहे
फ़क़ीर-ए-शहर की मगर सदा ही और हो गई
अँधेरे में थे जब तलक ज़माना साजगार2 था
चिराग़ क्या जला दिया, हवा ही और हो गई।
बहुत सँभल के चलने वाली थी पर अब के बार तो
वो गुल खिले कि शोख़ी-ए-सबा3 ही और हो गई
न जाने दुश्मनों की कौन बात याद आ गई
लबों तक आते-आते बद्दुआ ही और हो गई
ये मेरे हाथ की लकीरें खिल रहीं थीं या कि खुद
शगुन की रात खुशबू-ए-हिना4 ही और हो गई
ज़रा-सी कर्गसों5 को आब-ओ-दाना की जो शह मिली
उकाब6 से ख़िताब की अदा ही और हो गई
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1.नगर के रफूगर। 2.अनुकूल। 3.मन्द समीर की चपलता। 4.मेहँदी की सुगन्ध। 5.गिद्ध। 6.गरुड़, एक शिकारी चिड़िया।
1.नगर के रफूगर। 2.अनुकूल। 3.मन्द समीर की चपलता। 4.मेहँदी की सुगन्ध। 5.गिद्ध। 6.गरुड़, एक शिकारी चिड़िया।
(8)
जाने कब तक रहे ये तरतीब1
दो सितारे खिले क़रीब-क़रीब
चाँद की रोशनी से उसने लिखी
मेरे माथे पे एक बात अजीब
मैं हमेशा से उसके सामने थी
उसने देखा नहीं, तो मेरा नसीब
रूह तक जिसकी आँच आती है
कौन ये शोला-रू2 है दिल के क़रीब
चाँद के पास क्या खिला तारा
बन गया सारा आसमान रक़ीब3
दो सितारे खिले क़रीब-क़रीब
चाँद की रोशनी से उसने लिखी
मेरे माथे पे एक बात अजीब
मैं हमेशा से उसके सामने थी
उसने देखा नहीं, तो मेरा नसीब
रूह तक जिसकी आँच आती है
कौन ये शोला-रू2 है दिल के क़रीब
चाँद के पास क्या खिला तारा
बन गया सारा आसमान रक़ीब3
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1.क्रम। 2.अग्नि के मुखवाला। 3.प्रतिद्वंद्वी।
1.क्रम। 2.अग्नि के मुखवाला। 3.प्रतिद्वंद्वी।
(9)
टूटी है मेरी नींद मगर, तुमको इससे क्या
बजते रहे हवाओं से दर, तुमको इससे क्या
तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा1 घूमते फिरो
कट जाएँ मेरी सोच के पर, तुमको इससे क्या
औरों के हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या
अब्र-ए-गुरेज़-पा2 को बरसने से क्या ग़रज़
सीपी में बन न पाए गुहर, तुमको इससे क्या
तुमने तो थक के दश्त3 में ख़ेमे लगा लिए
तनहा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या
बजते रहे हवाओं से दर, तुमको इससे क्या
तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा1 घूमते फिरो
कट जाएँ मेरी सोच के पर, तुमको इससे क्या
औरों के हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या
अब्र-ए-गुरेज़-पा2 को बरसने से क्या ग़रज़
सीपी में बन न पाए गुहर, तुमको इससे क्या
तुमने तो थक के दश्त3 में ख़ेमे लगा लिए
तनहा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या
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1.मन्द समीर के समान। 2.भगोड़ा बादल। 3.अरण्य।
1.मन्द समीर के समान। 2.भगोड़ा बादल। 3.अरण्य।
(10)
क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी
पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी
जिसके माथे पे मिरे बख़्त1 का तारा चमका
चाँद के डूबने की बात उसी शाम की थी
मैंने हाथों को ही पतवार बनाया वरना
एक टूटी हुई कश्ती मेरे किस काम की थी
वो कहानी कि सभी सूईयाँ निकली भी न थीं
फ़िक्र हर शख़्स को शहज़ादी के अंजाम की थी
ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी
बोझ उठाए हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मीं माँ ! तेरी ये उम्र तो आराम की थी
पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी
जिसके माथे पे मिरे बख़्त1 का तारा चमका
चाँद के डूबने की बात उसी शाम की थी
मैंने हाथों को ही पतवार बनाया वरना
एक टूटी हुई कश्ती मेरे किस काम की थी
वो कहानी कि सभी सूईयाँ निकली भी न थीं
फ़िक्र हर शख़्स को शहज़ादी के अंजाम की थी
ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी
बोझ उठाए हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मीं माँ ! तेरी ये उम्र तो आराम की थी
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1.प्रारब्ध।
1.प्रारब्ध।
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